प्रार्थना चेतना का फूल है । जिस क्षण हमारे प्राण धन्यवाद से भरे होते हैं, अनुग्रह से भरे होते हैं, कृतज्ञता से भरे होते हैं प्रार्थना का फूल खिलता है । जिस क्षण हमें ये अनुभूति होती है कि जीवन में कितना प्रेम और सौंदर्य है, प्रार्थना खिलती है । जिस क्षण आनंद की मस्ती अंदर फूटती है, प्रार्थना खिलती है । जब होश की मिट्टी में धन्यवाद का बीज गिरता है तब प्रार्थना खिलती है । और इस प्रार्थना की सुगंध हमारे पूरे प्राणों में फैल जाती है ।
लेकिन ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो इस सुगंध को जान पाते हैं । हमारी प्रार्थना तो बेजान सी, दुर्गंध से भरी हुई सी लगती है । वह क्या है जो हमारी प्रार्थना को मलिन और दूषित कर देता है ? दो चीज़ें - एक तो हमारी दुखी चित्त की दशा, दूसरी हमारी यंत्रवत जीवन शैली । यदि हम ध्यान दें तो हम पाएँगे कि हम हमेशा शिकायत से भरे हुए जीते हैं । हम जब प्रार्थना करते हैं तब दुखी मन से करते हैं । उस प्रार्थना में शिकायत का भाव होता है । हम हमेशा कुछ माँग रहे होते हैं । तो हमारी प्रार्थना प्रार्थना न होकर भृक्षावृति ज़्यादा हो जाती है । हर समय माँगते रहते हैं कुछ । और माँगना और शिकायत करना ये दो अलग शब्द नहीं हैं । ये दोनों एक ही चीज़ है । आप कब माँगते हैं ? जब आप तृप्त नहीं होते उन चीज़ों से जो आपके पास हैं शिकायत का भाव असंतुष्टि से निकलता है । जब आप कुछ कमी महसूस करते हैं तब आप माँगते हैं । और प्रार्थना तो धन्यवाद है । कि जो दिया है वह बहुत है । हम विश-मेकिंग करते हैं । हमें सिखाया जाता है कि परमात्मा से कुछ माँगो । हम यह ध्यान ही नहीं देते कि हम जो कुछ भी माँग रहे हैं हम ईश-निंदा कर रहे हैं । यह बड़ा विरोधाभासी है, लेकिन आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि जो भी तथाकथित धार्मिक व्यक्ति होता है, जो हमेशा प्रार्थना करता दिखाई देता है, दरअसल, वह ईश्वर का प्रेमी न होकर ईश्वर का निंदक है, ईश्वर का आलोचक है । अब एक तरफ़ तो ये “भक्त” कहता है कि, “प्रभु तुम दयालु हो, कृपालु हो, तुम सर्वज्ञ हो ।” और जब प्रभु सर्वज्ञ है ही तो फिर माँगना क्या है ? वह तो जानता है कि तुम्हें कब, क्या, कितना चाहिए । उसे तो सब पता है, सर्वज्ञ है, उसे ज्ञात है कि तुम्हारी आवश्यकता क्या है । फिर उसे क्या याद दिला रहे हो माँग-माँग कर ? तो प्रार्थना हमारी, प्रार्थना न होकर ईश निंदा बन जाती है, वह ब्लेस्फेमी हो जाती है । इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि दुनिया में ज़्यादातर जो आस्तिक लोग हैं वह गहरे में नास्तिक ही हैं । क्योंकि नास्तिक तो कभी प्रार्थना ही नहीं करता, तो वह शिकायत भी नहीं करता, वह कुछ माँगता भी नहीं । लेकिन आस्तिक हर समय माँगता ही रहता है, “यह चाहिए, वह चाहिए” । फिर इसे प्रार्थना भी कहता है । इसमें आश्चर्य तो है ही नहीं कोई उसकी प्रार्थना में कोई सुगंध होती ही नहीं है । भिक्षावृत्ति से भी क्या सुगंध आनी है ? सुगंध तो देने में है । पूरे समय माँगने में क्या सुगंध होनी है ? याद रखिए कि जब भी आप कुछ माँग रहे होते हैं प्रार्थना में, आप गहरे में शिकायत कर रहे होते हैं । अपने भगवान की कार्यप्रणाली पर संदेह कर रहे होते हैं । उसकी विश्वसनीयता पर संदेह कर रहे होते हैं । आप उसे बता रहे होते हैं जो सब कुछ जानता है, उसे बता रहे होते हैं कि क्या किया जाना चाहिए । एक दिन एक गीत सुन रहा था । उसकी बड़ी सुंदर पंक्ति थी: “बिन बोले सब कुछ जानता”। जो हृदय ये जानता है कि “बिन बोले सब कुछ जानता” वही प्रार्थना कर सकता है । उसे बताना क्या है ? उसे तो सब पता है । जब तक आपकी माँगें पूरी नहीं गिर जातीं तब तक प्रार्थना तो खिल ही नहीं सकती अंदर । प्रार्थना का जन्म माँगरहित चित्त में ही होता है ।
मन की कुछ चालाकियाँ हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते । मेरे एक मित्र हैं जो हमेशा ही दुखी रहते हैं । जब कभी मैं उन्हें समझाता हूँ कि, “जो नहीं है उसके लिए शिकायत करने की जगह यदि तुम वह देखना शुरु कर दो जो है, जो मिला है, और बहुत मिला है, तो तुम जीवन को ख़ुशी से जीने लगोगे और तभी धन्यवाद होगा । तो धन्यवाद देना सीखो ।” तो मुझसे हमेशा वह कहते हैं कि, “धन्यवाद तो मैं देता हूँ, बिल्कुल, मैं हृदय से धन्यवाद देता हूँ प्रभु को कि तूने इतना कुछ दिया है । लेकिन फिर भी...” अब यह “लेकिन फिर भी”, यह चलता ही रहता है पीछे । आप कितना भी अपने आप को समझा लें, लेकिन यह “लेकिन फिर भी” कभी नहीं जाता । यह धन्यवाद फिर हुआ ही कहाँ ? यह तो चालाकी हुई । पूरे समय ये चालाकियाँ करते-करते हम इनमें इतने कुशल, पारंगत हो चुके हैं कि अब हमें ये चालाकियाँ लगती ही नहीं हैं । तो इस चित्त से, इस चालाक, दुखी चित्त से कभी प्रार्थना निकलेगी ही नहीं । न उससे कभी सुगंध आनी है ।
दूसरी बात है हमारी प्रार्थना का यांत्रिक ढंग । हम इतनी बेहोशी में प्रार्थना करते हैं कि प्रार्थना के शब्दों का अर्थ समझना तो दूर की बात है कभी-कभी तो हमें शब्द भी नहीं मालूम होते कि हम बोल क्या रहे हैं । मैं एक स्कूल में काम करता था । क्रिश्चियन स्कूल था । जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो देखा कि वहाँ प्रार्थना-सभा में दो प्रार्थनाएँ बोली जाती थीं । मैं उनको जानने के लिए उत्सुक हुआ । सभा के बाद मैंने कुछ बच्चों को बुलाया और उनसे कहा कि, “ये प्रार्थनाएँ जो आप कहते हो, ये मुझे लिखकर दे दो; ताकि मैं भी कल से बोल पाऊँ ।” तो उन बच्चों ने कहा - और वो ऊँची कक्षाओं के बच्चे थे - उन्होंने कहा कि, “हमें पता नहीं है ठीक से ये प्रार्थनाएँ । बस बोल लेते हैं क्योंकि बचपन से बोलते आ रहे हैं, 10-12 सालों से, तो बस बोल लेते हैं । लेकिन हमें पता नहीं है वास्तविक में शब्द क्या हैं ।” मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ ये सुनकर । फिर मैंने अपने कुछ साथी शिक्षकों से पूछा तो वहाँ पता चला कि कुछ एक शिक्षकों को छोड़कर शिक्षकों तक को नहीं पता कि वह प्रार्थना करते क्या हैं । हाँ, एक शब्द हर किसी को पता था कि प्रार्थना के अंत में “आमीन” बोलना है । यह हाल है हमारी प्रार्थनाओं का ! उन प्रार्थनाओं को जीना तो बहुत दूर की बात है, हम उन्हें ठीक से बोलना भी नहीं जानते । उसी प्रार्थना में एक बड़ा सुंदर वचन था: “Give us this day our daily bread.” हमें हमारी आज की रोटी दे, हमें आज की हमारी व्यवस्था कर दे, बस । और कितने सुंदर शब्द हैं ! आज की व्यवस्था कर दे, बस । और यही है नाऊ एंड हियर, अभी और यहीं । इतने प्यारे-प्यारे शब्द, इतने प्यारे-प्यारे अर्थ हमारी जीवन की यांत्रिकता में खो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं ।
आप भी जो प्रार्थना करते हैं, ज़रा गौर करके देखिए, क्या आपको उन प्रार्थनाओं के शब्द, उनके शब्दार्थ पता है हैं ? क्या आपने उन शब्दों को जिया है ? हिंदुओं की एक प्रार्थना है: “असतो मा सद्गमया” असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, “तमसो मा ज्योतिर्गमया” तमस से मुझे ज्योति की तरफ़, अंधेरे से मुझे प्रकाश की तरफ़ ले चल । हम ये सब रटते रहते हैं । कभी खोजा है कि असत्य है क्या, सत्य है क्या, तमस है क्या, ज्योति है क्या ? इसको मशीन जैसे, तोते जैसे रटते रहना इन प्रार्थनाओं को, इसमें कभी सुगंध आनी है कोई ? यह तो मृत है जैसे एक टेप रिकॉर्डर चल रहा है । आप बेहोश हैं । उस प्रार्थना में जब तक उतरते नहीं हैं, गहरे डूबते नहीं हैं, तब तक प्रार्थना मृत है । डूबना ज़रूरी है । जो प्रार्थना में डूबा ही नहीं वह कभी खिलेगा भी नहीं । मेरे एक और मित्र हैं । वह अपशब्द बहुत बोलते हैं । बहुत गालियाँ देते हैं, और बड़ी धाराप्रवाह देते हैं । जैसे कोई धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलना चाहता है वे धाराप्रवाह गालियाँ देते हैं । जब हम कहीं जा रहे होते हैं उनके मुँह से वह गाली चालीसा पूरे वक़्त चल ही रहा होता है । और जैसे ही हम किसी धार्मिक स्थल के पास से गुज़रते हैं, क्या कमाल है उनकी टाइमिंग का ! अचानक गालियाँ रुक जाती हैं और अचानक वो नतमस्तक हो जाते हैं । और जैसे ही हम उससे आगे निकलते हैं फिर गालियाँ शुरु हो जाती हैं । यांत्रिक ! यंत्रवत ! जैसे मन में कोई एक प्रोग्रामिंग कर दी गई हो कि जैसे ही कोई धार्मिक स्थल आए सिर झुका लेना है, नतमस्तक हो जाना है । फिर जीते रहो उसके बाद जैसे भी जीना हो । ये धार्मिक लोग हैं ! याद रखिए, यही लोग कहते हैं कि परमात्मा हर जगह है । परमात्मा हर जगह है तो गालियाँ धार्मिक स्थल के सामने ही क्यों रूकती हैं ? फिर तो वह कहीं भी नहीं होनी चाहिए । यह है यंत्रवत व्यवहार । और एक चीज़ और गौर करें: अब वो मित्र क्योंकि हिंदू हैं, तो कभी किसी मस्जिद या गिरजाघर के सामने उनका सर नहीं झुकता । यह भी हमारी कंडीशिंग का एक हिस्सा है ।
यदि हम प्रार्थना की सुगंध जानना चाहते हैं तो हमें इस दुखी चित्त और यांत्रिक जीवन शैली से मुक्त होना होगा । ऐसा तो नहीं हो सकता कि हम आनंद को अपने ऊपर लाद लें । मतलब आनंदपूर्ण चित्त की दशा थोपी नहीं जा सकती है । आप सोच-सोच के आनंदपूर्ण नहीं हो सकते । जब तक वह एक सहज अवस्था न बन जाए, जब तक आप सहज आनंद में न हों, मन की चालाकियों से बचना बहुत मुश्किल है । अब यह आनंद कैसे आता है ? थोड़ा-सा जागरण चाहिए । बस आप थोड़ा सा अवलोकन करें अपने जीवन के बारे में और आप पाएँगे कि जीवन ने हमें बहुत, बहुत कुछ दिया है । बिना माँगे इतना कुछ दिया है । आँखें दी हैं जो इतने लाखों रंगों को देख पाती हैं, इतनी सुंदर-सुंदर छवियाँ देख पातीं हैं; कान दिए हैं जो चिड़ियों के कलरव को सुन पाते हैं, कोयल की कूक को सुन पाते हैं, संगीत सुन पाते हैं, हृदय की धड़कन सुन पाते हैं; पैर दिए हैं, हम झूम पाते हैं, नाच पाते हैं ! कितना कुछ ! हमारा शरीर ही परमात्मा का कितना बड़ा उपहार है ! यह थोड़ी सी समझ हमें धन्यवाद से भरती है, और जैसे ही धन्यवाद आता है आनंद आता है । धन्यवाद और आनंद बिल्कुल आसपास ही होते हैं । एक क़दम धन्यवाद, दूसरा क़दम आनंद । बिल्कुल भी दूरी नहीं होती । यदि धन्यवाद सच्चा है , यदि हृदय से आ रहा है धन्यवाद, तो आनंद तुरंत बहेगा । धन्यवाद ऐसा न हो कि, “अब मैंने धन्यवाद किया है तो अब आनंद आएगा ।” तब फिर धन्यवाद हुआ ही नहीं । फिर तो फिर माँग आ गई, फिर तो धन्यवाद एक निवेश हो गया कि उसके बदले में आपको कुछ मिलेगा । तो धन्यवाद जैसे ही आता है उसके साथ ही आनंद आता है और उस आनंदित चित्त से प्रार्थना खिलती है क्योंकि वहाँ कुछ माँग ही नहीं होती । दूसरी बात है अपने यांत्रिक व्यवहार से बचना । इसका क्या निदान है ? इसका निदान है होशपूर्ण जीवन । हर एक क्षण जागे-जागे जीना । कोई भी काम यह देखते हुए, जानते हुए करना कि, “मैं ये कर रहा हूँ ।” जहाँ शरीर हो आपका वहीं आप भी हों । कोई भी कार्य आप कर रहे हैं उसके प्रति सचेत होकर जीयें । यह है होशपूर्ण जीवन ।
तो आनंद, धन्यवाद, होश ये सब जब मिल जाते हैं एक साथ, जब ये सब नदियाँ एक साथ मिलती हैं तो इनके संगम का नाम है प्रार्थना । जिसने इस प्रार्थना को जाना उसने यह जाना कि प्रार्थना के लिए शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं होती । यह आनंदित चित्त, यह सजग चेतना, जहाँ भी होती है वहीं प्रार्थना होती है । जो व्यक्ति सजग है, आनंदित है, वह जहाँ भी है वहीं प्रार्थना है, वह जो भी करे वही प्रार्थना है । वह अपने आप में ही प्रार्थना बन जाता है । प्रार्थना शब्दों तक ही सीमित नहीं होती । मैं पंजाब में एक परिवार के साथ रहता हूँ । जब मैंने उनके साथ रहना शुरू किया तो देखा कि उनके घर के बाहर जो नल लगा हुआ है उसके नीचे उन्होंने एक मिट्टी का छोटा सा बर्तन रखा हुआ है । वे उस बर्तन को पानी से भर देते हैं और आसपास के जानवर पानी पीते हैं उससे । साथ ही उन्होंने एक और बर्तन रखा हुआ है जिसमें वे रोज़ सुबह पक्षियों के लिए रोटी तोड़कर डाल देते हैं । बड़े प्रेम से धीरे-धीरे उस रोटी को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ते हैं ताकि पक्षी उन्हें खा सकें । बाजू में ही एक और बर्तन होता है पानी का । तो पक्षी आते हैं, भोजन करते हैं , पानी पीते हैं, तृप्त होते हैं, और फिर उड़कर चले जाते हैं । यह भी प्रार्थना ही तो है । यह भी धन्यवाद ही तो है । जीवन ने हमें कुछ दिया है और हम उसे किसी एक रुप में लौटा रहे हैं, दूसरों के साथ बाँट रहे हैं । यह दूसरों के साथ हार्मनी, यह दूसरों के साथ एकलयता भी प्रार्थना ही है । और यह बड़ी सुंदर प्रार्थना है । हममें से बहुत सारे लोग दान-पुण्य के काम करते हैं । लेकिन फिर चालाकी आ जाती है । हम ये दान-पुण्य इसीलिए करते हैं क्योंकि इसके बदले में हमें कुछ चाहिए । फिर माँग आ गई, फिर दुखी चित्त आ गया, फिर दुर्गंध आएगी । हम किसी व्यक्ति को एक रुपए भी यह बिना आशा के नहीं देते कि इसके बदले में हमें कुछ मिलेगा । वह एक रुपए देकर हम परमात्मा को यह याद दिलाना नहीं भूलते कि, “मेरे खाते में लिख लेना कि मैंने एक रुपए दिया है ।” यह चित्त प्रार्थना कर ही नहीं सकता । जो एक रुपए नहीं दे सकता वो प्रार्थना जैसी अमूल्य चीज़ परमात्मा को समर्पित कैसे करेगा । प्रार्थना तो समर्पण है, प्रार्थना अपने आप को अस्तित्व के चरणों में समर्पित कर देना है । जो एक रुपए नहीं दे पाएगा किसी को वह अपने आपको कैसे देगा ? प्रार्थना तो है अहं का अर्पण, स्वयं को अस्तित्व के हाथों में सौंप देना । जो हर समय इसी हिसाब-किताब में जीता रहेगा कि, “मैंने यह किया, अब मुझे इसके बदले में यह मिलेगा; मैंने उसके लिए वह किया...” यही है दुखी चित्त के लक्षण । तो थोड़ा जागिए । देखिए, हम कैसे अपने लिए संताप पैदा करते हैं । हम कैसे अपने लिए पीड़ा इकट्ठी करते हैं । जबकि हम उन पक्षियों को देखकर ख़ुश हो सकते हैं । जब वे आपस में एक दूसरे से लड़ते झगड़ते हैं, खेलते हैं, वह बहुत आनंद दे सकता है यदि हम देख पाँए तो । वो आनंद आपके चित्त को परिवर्तित कर सकता है ।
बस होशपूर्ण जीते रहें । फिर आप देखेंगे कि प्रार्थना के लिए किसी धार्मिक स्थल में जाना ज़रूरी नहीं है । आप कहीं भी प्रार्थना में हो सकते हैं । आप किसी राहगीर को, अजनबी को एक मीठी सी मुस्कान दे दें वह भी प्रार्थना ही है । बस देना । जो देना सीख गया वो प्रार्थना सीख गया । प्रार्थना देना ही है - धन्यवाद देना, प्रेम देना, अपने आप को देना । हम उल्टे हैं हम हर समय लेने की कोशिश में होते हैं । हर समय लेना, लेना, लेना । लेने की लालसा कभी प्रार्थना करने नहीं देती ।
ये छोटी-छोटी बातें हैं, छोटे-छोटे लक्षण हैं प्रार्थना को जानने के, समझने के । आप को किसी ज्ञानी से नहीं पूछने । बस जागिए । देखिए , जिस दिन देने का भाव अंदर जाग जाए उस दिन प्रार्थना भी जाग ही जाएगी । फिर जिसने एक बार देने का आनंद जान लिया उसने तो यह भी जान लिया कि देते जाओ, ख़ाली होते जाओ, परमात्मा भरता ही जाएगा । नीत्शे की एक किताब है दस स्पोक ज़रथुस्त्रा । उसमें ज़रथुस्त्रा कहता है कि, “मैं आनंद से भरा हूँ , मैं आनंद के शहद से भरा हूँ और मैं उन लोगों को ढूँढ रहा हूँ जिनके साथ मैं इस आनंद का शहद बाँट सकूं ।” यह है प्रार्थनापूर्ण हृदय, जो कुछ देना चाहता है । वह ढूँढ रहा है लोगों को कि उन्हें कुछ दे सके और हम ढूँढ रहे हैं लोगों को कि उनसे कुछ ले सकें । आगे ज़रथुस्त्रा कहता है कि, “मैं अब फिर से रिक्त हो जाना चाहता हूँ, ख़ाली हो जाना चाहता हूँ ।” क्योंकि वह जानता है, उसे मंत्र मिल गया है, उसने यह रहस्य जान लिया है कि जितना जो ख़ाली होता जाएगा वह उतना फिर फिर फिर भरता जाएगा । जिसने देने का आनंद जाना उसने प्रार्थना जानी और फिर वह प्रार्थना अलग ही प्रार्थना है, किसी और
जगत की प्रार्थना है ।